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उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सꣳसृजेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत ॥६१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। बु॒ध्य॒स्व॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑। जा॒गृहि॒। त्वम्। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्ते इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। सम्। सृ॒जे॒था॒म्। अ॒यम्। च॒। अ॒स्मिन्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अधि॑। उत्त॑रस्मि॒न्नित्युत्ऽत॑रस्मिन्। विश्वे॑। दे॒वाः॒। यज॑मानः। च॒। सी॒द॒त॒ ॥६१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:61


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वही विषय कहा जाता है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान ऋत्विक् पुरुष ! (त्वम्) तू (उद्, बुध्यस्व) उठ, प्रबोध को प्राप्त हो (प्रति, जागृहि) यजमान को अविद्यारूप निद्रा से छुड़ा के विद्या में चेतन कर, तू (च) और (अयम्) यह ब्रह्मविद्या का उपदेश करनेहारा यजमान दोनों (इष्टापूर्त्ते) यज्ञसिद्धि कर्म और उसकी सामग्री को (संसृजेथाम्) उत्पन्न करो। हे (विश्वे) समग्र (देवाः) विद्वानो ! (च) और (यजमानः) विद्या देने तथा यज्ञ करनेहारे यजमान ! तुम सब (अस्मिन्) इस (सधस्थे) एक साथ के स्थान में (उत्तरस्मिन्) उत्तम आसन पर (अधि, सीदत) बैठो ॥६१ ॥
भावार्थभाषाः - जो चैतन्य और बुद्धिमान् विद्यार्थी हों, वे पढ़ानेवालों को अच्छे प्रकार पढ़ाने चाहियें। जो विद्या की इच्छा से पढ़ानेहारों के अनुकूल आचरण करनेवाले हों और जो उनके अनुकूल पढ़ानेहारे हों, वे परस्पर प्रीति से निरन्तर विद्याओं की बढ़ती करें और जो इन पढ़ने-पढ़ाने हारों से पृथक् उत्तम विद्वान् हों, वे इन विद्यार्थियों की सदा परीक्षा किया करें, जिससे ये अध्यापक और विद्यार्थी लोग विद्याओं की बढ़ती करने में निरन्तर प्रयत्न किया करें, वैसे ऋत्विज्, यजमान और सभ्य परीक्षक विद्वान् लोग यज्ञ की उन्नति किया करें ॥६१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स एव विषयः प्रोच्यते ॥

अन्वय:

(उत्) ऊर्ध्वम् (बुध्यस्व) जानीहि (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान पुरुष (प्रति) (जागृहि) यजमानं प्रबोधयाविद्यानिद्रां पृथक्कृत्य विद्यायां जागरूकं कुरु (त्वम्) (इष्टापूर्त्ते) इष्टं च पूर्त्तं च ते (सम्) संसर्गे (सृजेथाम्) निष्पादयेताम् (अयम्) ब्रह्मविद्योपदेष्टा (च) (अस्मिन्) (सधस्थे) सहस्थाने (अधि) उपरि (उत्तरस्मिन्) उत्तमासने (विश्वे) समग्राः (देवाः) विद्यायाः कामयितारः (यजमानः) विद्याप्रदाता यज्ञकर्त्ता (च) (सीदत) तिष्ठत ॥६१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वमुद्बुध्यस्व प्रति जागृहि, त्वं चायं इष्टापूर्त्ते संसृजेथाम्। हे विश्वेदेवा ! कृतेष्टापूर्त्तो यजमानश्च यूयं सधस्थेऽस्मिन्नुत्तरस्मिन्नधि सीदत ॥६१ ॥
भावार्थभाषाः - ये सचेतना धीमन्तो विद्यार्थिनः स्युस्तेऽध्यापकैः सम्यगध्यापनीयाः स्युर्ये विद्याभीप्सवोऽध्यापकानुकूलाचरणाः स्युर्ये च तदधीना अध्यापकास्ते परस्परं प्रीत्या सततं विद्योन्नतिं कुर्युर्येऽतोऽन्ये प्रशस्ता विद्वांसः स्युस्त एतेषां सततं परीक्षां कुर्युर्यत एते विद्यावर्द्धने सततं प्रयतेरँस्तथार्त्विग्यजमानादयो भवेयुः ॥६१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे चैतन्ययुक्त तेजस्वी व बुद्धिमान विद्यार्थी असतील त्यांना अध्यापकांनी चांगल्या प्रकारे शिकवावे. जे विद्या शिकण्याच्या इच्छेने अध्यापकाच्या अनुकूल वागतात व जे अध्यापक त्यांच्या अनुकूल असतील त्यांनी परस्पर प्रेमाने सतत विद्येची वाढ करावी. जे या अध्ययन व अध्यापन करणाऱ्यापेक्षा वेगळे उत्तम विद्वान असतील त्यांनी या विद्यार्थ्याची सदैव परीक्षा घ्यावी म्हणजे हे अध्यापक व विद्यार्थी सतत विद्या वाढवितील. (ऋत्विकांनी यजमानाला अविद्येच्या निद्रेतून जागे करून विद्यारूपी जागृती करावी. ) ऋत्विक, यजमान् व सभ्य विद्वान परीक्षकांनी उत्तम सामग्रीने यज्ञ वृद्धिंगत करावा.